जनवादी मूल्यों के अंतर्द्वंद में मुक्तिबोध _ डॉ.अशोक आकाश

जनवादी मूल्यों के अंतर्द्वंद में मुक्तिबोध _ डॉ.अशोक आकाश

जनवादी मूल्यों के अंतर्द्वंद में मुक्तिबोध _ डॉ.अशोक आकाश

जनवादी मूल्यों के अंतर्द्वंद में मुक्तिबोध _ डॉ.अशोक आकाश

मुक्तिबोध मनुष्यता के पोषक कवि के रूप में जाना जाता है। उनकी कविताएं मानव मूल्यों के प्रतिपादन में सार्थकता का सुदीर्घ दीप प्रज्वलित करती हैं । उनके साहित्य में स्वयं की खोज में भटक रहे यायावर कवि की भविष्य के प्रति आशंका और बेचैनियाँ परिलक्षित होती हैं। उनको पढ़कर संतुष्टिपूर्ण आश्चर्य का मन:उद्दीपन होता है । बहुत से अंशों में नितांत अकेलेपन से जूझ रहे नायक को मानवीय सन्निकटता प्राप्त होती है । कमी के बावजूद प्राप्ति का सुख इनकी काव्य की संपूर्णता है । शब्दों में व्याप्त मर्मस्पर्शी सहभागिता इनकी काव्यात्मक विशिष्टता का द्योतक है, जिनमें जनवादी दर्शन का सहज जागृत साहित्यिक स्वरूप शोभायमान है । जिम्मेदार लोगों तक पहुंचने वाली सहज और सरल शब्दों की पीड़ात्मक अभिव्यक्ति इनकी काव्य की विशिष्टता है । 
           
साहित्य की विभिन्न विधाओं में इनकी सहज सरल आवृत्ति से जनवादी मूल्यों के प्रति साहित्यकार का अंतर्द्वंद स्पष्ट परिलक्षित होता है। आधुनिक हिंदी काव्य इतिहास में छायावादी कवियों के बाद विश्व स्तरीय कवियों की सूची में जिन रचनाकारों का नाम विशेष उल्लेखित किया जाता है उनमें गजानन माधव मुक्तिबोध का नाम सर्वप्रथम आता है। काव्य को पारंपरिक शैली से मुक्त कर नवल परिधान में पिरोकर पाठक वृंद तक प्रस्तुत करने की विशिष्ट शैली मुक्तिबोध ने इजाद किया । उसने कविता ही नहीं कहानी और समीक्षा को भी नए कलेवर से गढ़ा, इससे उनकी लोकप्रियता में सतत वृद्धि हुई।
        
व्यक्ति जिस किसी भी क्षेत्र में चलता है । उसे अपनी विशिष्ट पहचान बनाने में पूरी उम्र लग जाती है । पाठक समीक्षक आलोचक की कसौटी में खरा उतरने में हर साहित्यकार को अपनी पूरी उम्र का बलिदान देना होता है । मुक्तिबोध इसके अछूते नहीं रहे, उन्हें भी अपने समय की कसौटी में खरा उतरने साधना की कसौटी में खुद को कसना पड़ा। पर्याप्त लोकप्रियता के बावजूद भी उन्हें साहित्यिक पहचान निर्मित करने लंबे अंतराल तक संघर्ष की कसौटी से गुजरना पड़ा। गजानन माधव मुक्तिबोध से हिंदी साहित्य को नई दिशा और दशा मिली। वे अपने समय से पूर्व जन्मे साहित्यकार थे, जिनके साहित्य को समझने उस पर आकंठ डूब जाना होता है। उनके द्वारा प्रयुक्त शब्द सरल जरूर प्रतीत होते हैं, लेकिन उन्हें समझ पाना सरल नहीं है । शब्दों की गहराई तक पहुंचने पर उनकी पंक्तियों में कवि का मानव मूल्यों से अंतर्द्वंद चित्रित करती पंक्तियों में वैचारिक प्रखरता और समाज के प्रति प्रतिबद्धता दृष्टिगोचर होते हैं। उनकी कविता में सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक विसंगतियों पर गहरा कटाक्ष दिखता है। समय की नब्ज टटोलते पंक्तियों में मुक्तिबोध की पकड़ अपने समकालीन साहित्यकारों में सर्वाधिक मजबूत दिखाई देती है। उनकी कविताएं उनके जीवनकाल में उतने लोकप्रिय नहीं हुए जितना कि मरणोपरांत। धीरे-धीरे सही मुक्तिबोध समग्र मूल्यांकन पश्चात साहित्यिक प्रखरता को प्राप्त हुए । यहां मैं मुक्तिबोध जी की कुछ कविताओं का विशेष उल्लेख करना चाहूंगा जिससे कि जनवादी मूल्यों का अंतर्द्वंद झलकता है । 
       
प्रस्तुत है उनकी कुछ कविताएँ__
       
(1) मुझे लगता है 

      कि मन एक रहस्ययी लोक है। 
       उसमे अंधेरा है, 
      अंधेरे में सीढ़ियां है। 
  सीढ़ियां गीली हैं । 
  सबसे निचली सीढ़ी,
      सीधी पानी से डूबी हुई !
     वहां अथाह काला जल है। 
उस अथाह जल से स्वयं को ही डर लगता है । 
इस अथाह काले जल में कोई बैठा है 
वह शायद मैं ही हूं । 
 अथाह और एकदम स्याह अंधेरे पानी की सतह पर, 
चांदनी का चमकदार पट्टा फैला हुआ है।
      जिसमें ही आंखें चमक रही है। 
      मानो दो मुंगिया पत्थर भीतर उदिप्त हो उठे हों ।

(2 ) केवल एक लालटेन के सहारे_:_ 

वीरान मैदान , 
अंधेरी रात, 
खोया हुआ रास्ता ,
हाथ में एक पीली मध्यम लालटेन। 
यह लालटेन समुचित पथ को पहले से उद्घाटित करने में असमर्थ है। 
केवल थोड़ी सी जगह पर ही उसका प्रकाश है । 
ज्यों - ज्यों पग बढ़ता जाएगा,
थोड़ा-थोड़ा उद्घाटन होता जाएगा। 
चलने वाला पहले से नहीं जानता, कि क्या उद्घाटित होगा। 
उसे अपनी पीली मद्धिम लालटेन का ही सहारा है 
इस पथ पर चलने का अर्थ ही पथ का उद्घाटन होना है ।
और वह भी धीरे-धीरे क्रमशः। 
वह यह भी नहीं बता सकता,
कि रास्ता किस ओर घूमेगा या उसे किन घटनाओं या वास्तविकता का सामना करना पड़ेगा ।
कवि के लिए इस पथ पर आगे बढ़ते जाने का काम महत्वपूर्ण है। 
इस रास्ते पर बढ़ने के लिए निसंदेह आत्म संघर्ष करना पड़ता है ।
केवल एक लालटेन है जिसके सहारे उसे चलना है ।

(3) ब्रह्मराक्षस

 शहर के उस ओर खंडहर की तरफ
      परित्यक्त सूनी बावड़ी 
      के भीतरी 
      ठंडे अंधेरे में 
बसी गहराइयां जल की...
      सीढ़ियां डूबी अनेकों 
          उस पुराने घिरे पानी में....
समझ में आ न सकता हो
        एक जैसे बात का आधार
        लेकिन बात गहरी हो 
        यह क्यों हुआ!
        क्यों यह हुआ !!
मैं ब्रह्मराक्षस का सजल 52 शिष्य होना चाहता 
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य 
उसकी वेदना का स्त्रोत 
संगतपूर्ण निष्कर्मों तलक पहुंचा सकूं। 

        गजानन माधव मुक्तिबोध को प्रगतिशील कविता और नई कविता के बीच का सेतु माना जाता है । उनकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति जन-जन में चेतना जागृति का सास्वत संदेश देती है। दहशत में जी रहे मर्माहत व्यक्ति को दासता से मुक्ति का बोध कराती है मुक्तिबोध की कविता । कालजयिता को प्राप्त हुए जन जन की पीड़ा अपनी पंक्तियों में व्यक्त कर जन अभिव्यक्ति के द्वार खोल खतरों से आगाह कर अभिव्यक्ति के खतरे उठाने और जन जन की दासता का प्रतीक मठ और सारे गढ़ तोड़ देने का आह्वान करते हैं। उनकी प्रसिद्ध कविता *अंधेरे में* की कुछ पंक्तियां जो कि रेडियो नाट्य रूपांतरण के माध्यम से चर्चित हुए प्रस्तुत है.... 

अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे। 
तोड़ने ही होंगे मठ 
और गढ़ सब 
पहुंचना होगा 
दुर्गम पहाड़ों के उस पार 
तब कहीं देखने को मिलेंगी बाहें
जिनमें कि
प्रतिपल कॉपता रहा 
अरुण कमल....
      ... 

इसीलिए मैं हर गली में,

हर सड़क पर झांक झांक कर देखता हूं हर चेहरा ,
प्रत्येक गतिविधि 
प्रत्येक चरित्र
व हर एक आत्मा का इतिहास,
हर एक देश व राजनीति
परिस्थिति 
प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श, 
विवेक प्रक्रिया,
क्रियागत परिणति !
...... 

खोजता हूं पहाड़ पठार समुंदर जहां मिल सके मुझे 
मेरी वह खोई हुई परम अभिव्यक्ति, 
अनिवार आत्मसंभवा ! 

रात चलते हैं अकेले ही सितारे, एक निर्जन रिक्त नाले के पास। मैंने एक स्थल को खोद,
मिट्टी के हर ढेले निकालें,
दूर खोदा 
और दोनों हाथ चलाए जा रहे हैं । 
शक्ति से भरपूर बड़े अपस्वर
 घृणित रात्रिचरों के क्रूर । 
काले से सुरों में बोलता 
सुनसान सा मैदान। 
जलती थी हमारी लालटेन उदास, 
एक निर्जन रिक्त नाले के पास ।
खुद चुका बिस्तर बहुत गहरा ।
न देखा खोलकर चेहरा 
कि अपने ह्रदय सा 
प्यार का टुकड़ा, 
हमारी जिंदगी का एक टुकड़ा प्राण का परिचय 
हमारी आंख सा अपना ,
वही चेहरा जरा सिकुड़ा 
पड़ा था पीत, 
अपनी मृत्यु मे अविभीत। 
वह निर्जीव, 
पर उस हमारे प्राण का अधिकार
 यहां भी मोह है अनिवार,
यहां भी स्नेह का अधिकार ।

बिस्तर खूब गहरा खोद, 
अपनी गोद से 
रक्खा उसे नरम धरती गोद ।
फिर मिट्टी 
की फिर मिट्टी 
रखें फिर एक दो पत्थर,
उढ़ा दी मृतिका की सांवली चादर हम चल पड़े 
लेकिन बहुत ही फिक्र से फिर कर कि पीछे देख कर 
मन कर लिया था शांत । 
अपना धैर्य पृथ्वी के हृदय में रख दिया था । 
धैर्य पृथ्वी का हृदय में रख लिया था। 
उतनी भूमि है चिरंतन अधिकार मेरा, 
जिसकी गोद में मैंने सुलाया था प्यार मेरा । 
आगे लालटेन उदास,
पीछे, दो हमारे पास साथी। 
केवल पैर की ध्वनि के सहारे
राह चलती जा रही थी। 
.....

        
अभिव्यक्ति की आजादी को छटपटाते लोगों की बेचैनियां व्यक्त करती मुक्तिबोध की उपरोक्त पंक्तियां उनके अंतर्मन में चल रहे जनवादी मूल्यों के अंतर्द्वंद को स्पष्ट परिलक्षित करती हैं।
            
मुक्तिबोध का साहित्य अनेक दृष्टि में महत्वपूर्ण है। इनकी अनुपम साहित्य शैली हिंदी को समृद्ध करने में सहायक सिद्ध हुई। इनकी कविताओं में जनवादी मूल्यों की चरम अभिव्यक्ति का अमृत रस छलकता प्रतीत होता है जिनसे मानव मूल्यों का अंतर्द्वंद स्पष्ट है, इनके शब्दों में *"मुक्ति अकेले में अकेले की नहीं हो सकती, मुक्ति अकेले में अकेले को नहीं मिलती। "* मनुष्य सामाजिक प्राणी है, सामाजिकता मानव मूल्यों का प्रतीक है, और मनुष्य का अकेलापन उसे मानसिक द्वंद में धकेल देता है। मानसिक द्वंद्व से मुक्ति का मार्ग अकेले नहीं हो सकता । इसलिये अंतर्द्वंद से जूझता कवि शब्दों में अभिव्यक्त कर अपनी पीड़ा जन जन तक परोसकर जन सारोकार के मुद्दों पर बात रखता है।

       
पिकासो अपने समय के बड़े चित्रकार थे, मुक्तिबोध ने उनके चित्रकला के विरुद्ध काव्य सृजन किया, उनके अनुसार पिकासो की चित्रकला मानवता का स्थिर बिम्ब है जिनमें गति नहीं होती। वे पिकासो को विद्रूप मानसिकता के प्रतीकात्मक बिंब का संयोजक मानते थे। उनका आरोप था कि पिकासो गतिहीनता की पीड़ा से ग्रस्त चित्रकार है, उनके आत्मघाती प्रतीक सामाजिकता के खिलाफ है । इसके बावजूद भी मुक्तिबोध ने उन्हें बड़ा चित्रकार माना, यह उनकी आत्ममुग्धता का प्रतीक भी है । मुक्तिबोध का साहित्य जन चेतना का प्रगतिवादी साहित्य है, जहां चेतना है आडंबर के खिलाफ ....। जहां चेतना है, फासीवाद के खिलाफ .....। जहां सजगता है मानसिक गुलामी के खिलाफ.... । मानवीय गुणों और दुर्गुणों के बीच अंतर स्पष्ट करती पंक्तियाँ जीवन की नीरसता और निरर्थकता के बीच अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे लोगों के जीवन को प्रदर्शित कर जनवादी मूल्यों के लिए संघर्ष की दास्तां कहते हैं इसलिए मुक्तिबोध प्रायः अपनी हर कविता में जनवादी मूल्यों के अंतर्द्वंद में जूझता प्रतीत होता है। राजनांदगांव की श्रमिक बाहुल्य क्षेत्र में रहकर दिग्विजय महाविद्यालय की कर्मभूमि में पुष्पित मानव चेतना को समर्पित उनकी कविताएँ जनवादी मुल्यों के अन्तर्द्वंद में जूझ रहे कवि की पीड़ा अभिव्यक्त करती हैं। 


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